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रा॒या व॒यꣳ स॑स॒वासो॑ मदेम ह॒व्येन॑ दे॒वा यव॑सेन॒ गावः॑। तां धे॒नुं मि॑त्रावरुणा यु॒वं नो॑ वि॒श्वाहा॑ धत्त॒मन॑पस्फुरन्तीमे॒ष ते॒ योनि॑र्ऋता॒युभ्यां॑ त्वा ॥१०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रा॒या। व॒यम्। स॒स॒वास॒ इति॑ सस॒ऽवासः॑। म॒दे॒म॒। ह॒व्ये॑न। दे॒वाः। यव॑सेन। गावः॑। ताम्। धे॒नुम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। यु॒वम्। नः॒। वि॒श्वाहा॑। ध॒त्त॒म्। अन॑पस्फुरन्ती॒मित्यन॑पऽस्फुरन्तीम्। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। ऋ॒ता॒युभ्या॑म्। ऋ॒त॒युभ्या॑मित्यृ॑तयुऽभ्या॑म्। त्वा॒ ॥१०॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:10


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी योग पढ़ने-पढ़ानेवालों के कृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हे ससवांसः) भले-बुरे के अलग-अलग करनेवाले (देवाः) विद्वानो ! आप और (वयम्) हम लोग (यवसेन) तृण, घास, भूसा से (गावः) गौ आदि पशुओं के समान (हव्येन) ग्रहण करने के योग्य (राया) धन से (मदेम) हर्षित हों और हे (मित्रावरुणा) प्राण के समान उत्तम जनो ! (युवम्) तुम दोनों (नः) हमारे लिये (विश्वाहा) सब दिनों में (अनपस्फुरन्तीम्) ठीक-ठीक ज्ञान देनेवाली (धेनुम्) वाणी को (धत्तम्) धारण कीजिये। हे यजमान ! जिससे (ते) तेरा (एषः) यह विद्याबोध (योनिः) घर है, इससे (ऋतायुभ्याम्) सत्य व्यवहार चाहनेवालों के सहित (त्वा) तुझ को हम लोग स्वीकार करते हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि अपने पुरुषार्थ और विद्वानों के सङ्ग से परोपकार की सिद्धि और कामना को पूर्ण करनेवाली वेदवाणी को प्राप्त होकर आनन्द में रहें ॥१०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेतयोः कृत्यमाह ॥

अन्वय:

(राया) धनेन सह (वयम्) पुरुषार्थिनः (ससवांसः) संविभक्ताः (मदेम) हृष्येम (हव्येन) गृहीतव्येन (देवाः) विद्वांसः (यवसेन) अभीष्टेन तृणबुसादिना (गावः) गवादयः पशवः (ताम्) (धेनुम्) धयति पिबत्यानन्दरसमनया ताम्। धेनुरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (मित्रावरुणा) प्राणवत् सखायावुत्तमौ जनौ (युवम्) युवाम् (नः) अस्मभ्यम् (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (धत्तम्) (अनपस्फुरन्तीम्) विज्ञापयित्रीमिव योगविद्याजन्यां वाचम् (एषः) (ते) (योनिः) (ऋतायुभ्याम्) आत्मन ऋतमिच्छद्भ्यामिव (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.१.४.१०) व्याख्यातः ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - ससवांसो देवा वयं यवसेन गाव इव हव्येन राया मदेम। हे मित्रावरुणा ! युवं युवां नोऽस्मभ्यं विश्वाहा विश्वान्यहान्यनपस्फुरन्तीं तां धेनुं धत्तम्। हे यजमान ! यस्यैष ते विद्याबोधो योनिरस्ति, अत ऋतायुभ्यां सहितं त्वा त्वां वयमाददीमहे ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैः पुरुषार्थेन विद्वत्सङ्गेन च परोपकारनिष्पादयित्रीं कामदुघां वेदवाचं प्राप्यानन्दयितव्यमिति ॥१०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी पुरुषार्थ करावा व विद्वानांच्या संगतीत राहून परोपकार करावा. मनोकामना पूर्ण करणाऱ्या वेदवाणीचा स्वीकार करून आनंदाने राहावे.